भारत अफगानिस्तान में अपनी सेना क्यों नहीं भेजता?

भारत अफगानिस्तान में अपनी सेना क्यों नहीं भेजता?

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राजनीति जोश और ज़ज्बात से नहीं चलती. तालिबान की हुकूमत भारत के लिए जितनी भी खतरनाक हो, वहां फौज भेजना उससे कई गुना अधिक भयावह परिणाम लाएगा. बाकी जो पुराने लोग है उन्हें श्रीलंका मे हमारी फौज (IPKF) का हश्र याद ही होगा.

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चलिए थोड़ा गहराई में झांकते है.

सोवियत संघ के अफगानिस्तान से भागने के बाद मुल्क मे गृह-युद्ध और अराजकता के काले बादल छा गए. कल तक जो कंधे से कंधा मिलाकर सोवियत काफ़िरों के खिलाफ जिहाद कर रहे थे, वो लड़ाके अब आपस में ही लड़ मरे और पीसी वहाँ की आम जनता.

उनके लिए रक्षक बन कर आया तालिबान. जिसने मुल्क मे फिर से कानून व्यवस्था कायम की.

अब जानते हैं कि आखिर कौन है ये तालिबान. तालिब का मतलब होता है छात्र – मदरसों मे पढ़ने वाले छात्र.

इस आन्दोलन की शुरुआत हुई थी पाकिस्तान के मदरसों मे पढ़े जिहादी छात्रों से जिनके माँ बाप ने सोवियत-अफगान युद्ध से तंग आकर पाकिस्तान में शरण लिया था.

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ये तालिब आखिर पढ़ते क्या थे : कट्टर इस्लामिक देवबंदी विचारधारा

देवबंद का मुख्यालय कहाँ है: यह यूपी, भारत में है.

करीब 90% पाकिस्तानी आतंकवादी (लश्कर आदि सहित) और पाकिस्तानी सेना (जिया /मुशर्रफ आदि सहित) इसी विचारधारा मे यकीन रखती है.

तालिबान को पोषित कौन करता है: यही पाकिस्तानी सेना. चाहे हथियार हो, ट्रेनिंग, लॉजिस्टिक या स्ट्रैटिजी. वास्तव में करीब 30% तालिबानी फौज मे पाकिस्तानी सक्रिय सैनिक हैं जो तालिबान के वेश में रणनीति बना रहे हैं. आज पूरे अफगानिस्तान में जो ब्लिट्जक्री चल रहा है, दिमाग पाकिस्तान का ही है.

तोरा बोरा पर्वत याद रखें – जब अमेरिका 2001 मे तालिबानियों की कब्र बिछाता हुआ आगे बढ़ रहा था तभी अचानक से वो तोरा बोरा के पास अभियान रोक देता है. दरअसल यह पाकिस्तान को एक मौका दिया गया था, तालिबान के रूप में छिपे अपने सैनिकों को बचाने का.

अफगान राष्ट्रीय सेना (+ अन्य सेवाएं) तथाकथित तौर पर तीन लाख की होनी चाहिए. वास्तव में यह उससे आधी या शायद एक तिहाई भी नहीं है. अमेरिका से पैसे लेने के लिए वारलोर्ड ने नंबर बढ़ा चढ़ा के पेश किए. हथियार बेच दिए गए और सैलरी जेब में गयी: भ्रष्ट अफगान सरकार की जेब मे.

दूसरी ओर तालिबान की ताकत साठ-सत्तर हजार होनी चाहिए थी लेकिन वास्तविकता मे ये दो लाख तक होने का अनुमान है. दुनिया भर के जिहादी – जैश, लश्कर, दाएश, अल-कायदा आदि – सब शामिल हैं.

इस जिहादी फौज की तुलना मधुमक्खियों से कर सकते हैं: एक है बड़ी माँ मधुमक्खी (पाकिस्तान) जो पोषित करती है हजारों श्रमिक मधुमक्खियों (तालिबान) को.

यदि आप कुछ सौ या एकाध हजार श्रमिक मधुमक्खियों को मारते भी हैं तो माँ मधुमक्खि और लड़ाके पैदा करती रहेगी. और यह सिलसिला अनंतकाल तक चलता रहेगा.

दूसरी बात,

तालिबान और स्थानीय लोगों मे कोई अन्तर नहीं. ये कोई आम फौज तो है नहीं ना ही यूनिफार्म पहनते है. बंदूक उठा लिया तो तालिबान, छोड़ दिया तो किसान.

हवाई बमबारी होगी तो आम नागरिक भी मारे जाएंगे. ब्लकि तालिबान से ज्यादा मारे जाएंगे. अब चूँकि बम बरसाने वाले हिन्दू काफ़िर है तो इन्हें भी जिहाद के ब्लैकहोल मे खींच लिया जाएगा. आज जिस आम जनता को बचाने आप जाना चाहते हैं कल को वही आपके खिलाफ हो जाएगी. और हमारा हर गिरता मरता सैनिक हमारी हताशा बढ़ायेगा. और पाकिस्तान इसका भरपूर फायदा उठाएगा. कश्मीर मे भी, वैश्विक मंचों पर भी.

तालिबान को आसानी से पराजित नहीं किया जा सकता है. तालिबान को एक राक्षस माने तो उसकी जान पाकिस्तान रूपी तोते मे अटकी पड़ी है तालिबान को हराने की लड़ाई अफगानिस्तान में नहीं बल्कि पाकिस्तान (रावलपिंडी) में है.

अमेरिकन ने यही गलती की. सिर्फ लक्षण का इलाज करना चाहा और बीमारी के जड़ (रावलपिंडी) को छुआ भी नहीं. आज नतीजा सबके सामने है.

क्या भारत रावलपिंडी पर हमले की हिम्मत जुटा पाएगा? और अगर हमला करना ही है तो बहाना अफगानिस्तान का क्यों ले.

गौर कीजिएगा!

अफ़गानिस्तान का पिछले 10-12 सालों का इतिहास उठा कर देखेंगें तो इस तख्ता पलट के कई छुपे कारण नज़र आयेंगे: 1. काबुल सरकार विदेशी मदद उन सैनिकों के नाम पर ले रही थी जो कभी थे ही नहीं. दूसरे शब्दों मे, फ़र्ज़ी सैनिक दिखा कर पैसा लिया जा़ रहा था. इन्हें “घोस्ट सोल्जर्स” कहा जाता हैं.

अफ़ग़ानी सेना तालिबान की स्लीपर सेल थी जो अमेरिका और भारत जैसे देशों से पैसे ऐंठ रही थी। सही समय पर सेल एक्टिवेट हुई और अपने कोर से जा मिली। अफ़ग़ानियों के सहज समर्पण का मुझे तो यही सबसे सटीक और ‘ईमान’दार वजह लगती है।

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