भारत में प्रकाश की गति के सीमित होने का अनुमान चौदहवीं शताब्दी तक हो गया था। ऋग्वेद के सायण के भाष्य में यह अंश प्रकाश की गति के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण परिकल्पना रखता है :
त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य ।
विश्व॒मा भा॑सि रोच॒नम् ॥ — ऋग्वेदः १.५०.४
हे “सूर्य त्वं “तरणिः तरिता अन्येन गन्तुमशक्यस्य महतोऽध्वनो गन्ता “असि । तथा च स्मर्यते– ‘योजनानां सहस्रे द्वे द्वे शते द्वे च योजने । एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तु ते’ इति । यद्वा । उपासकानां रोगात् तारयितासि । ‘ आरोग्यं भास्करादिच्छेत् ‘ इति स्मरणात् । — सायणभाष्यम्
इसके अनुसार ‘एक निमिष के आधे भाग में दो हजार दो सौ दो योजन गमन करते हैं’, जोकि सूर्य की गति के सम्बन्ध में है। एक निमिष पलक को झपकने में लगा समय है। १ निमिष = एक मात्रा वाले वर्ण के उच्चारण में अथवा एक बार पलकें झपकाने में लगा समय = ०.२१३३ सेकंड मान होता है। (वास्तव में पलक झपकने में लगा समय ०.१ से ०.४ सेकेंड का होता है, अतः निमेष की अवधि का अनुमान औसत ०.२ सेकेंड के बहुत निकट है)।
योजन का मान इतना निश्चितता से नहीं बताया जा सकता है, यह ६.४ से १३.२ किलोमीटर के मध्य की दूरी हो सकती है। सूर्यसिद्धांत तथा आर्यभटीय में एक योजन का मान लगभग ८ किलोमीटर है। वहीं चौदहवीं शताब्दी के गणितज्ञ परमेश्वर के अनुसार इसका मान लगभग ८ मील = १२.९ किलोमीटर है। कनिंघम के अनुसार चीन के दूरी के माप की इकाईयों के तुलनात्मक अध्ययन से एक योजन का मान लगभग १०.८ से १३.२ किलोमीटर हो सकता है।
अतः इस सूत्र का मान २२०२ × ६.४ × २ ÷ ०.२१३३ से मान २२०२ × १३.२ × २ ÷ ०.२१३३ किलोमीटर प्रति सेकंड हो सकता है। अतः यह गति लगभग १३२१४० से २७२५४० किलोमीटर प्रति सेकंड की होगी। यदि हम योजन का मान ९ मील माने तो प्रकाश की गति २,९९,१७४.६८ किलोमीटर प्रति सेकंड होगी। अतः सायण के भाष्य के अनुसार यह गति का मान प्रकाश की गति को पूर्णतः शुद्ध नहीं बताता है, किन्तु इस मान का प्रकाश की गति के समकक्ष हो जाता है, किन्तु फिर भी इस मान का निर्धारण त्रुटिपूर्ण होने की सम्भावना है।
भारत में लल्लाचार्य (लगभग ७०० ई॰) के ‘शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रम्’ अनुसार मापने के लिए गोलयन्त्र, भंगनयन्त्र, चक्रयन्त्र, धनुयन्त्र, घटीयन्त्र (समय), शकटयन्त्र, कर्तरियन्त्र, शलाकायन्त्र, यष्टियन्त्र, आदि प्रयोग किए जाते थे।
गोलो भगणश्चक्रं धनुघटी शंकुशकटकर्तर्यः।
पीप्टक पालशलाका द्वादशयन्त्राणिसह यष्टया ॥
अतः सायण के भाष्य लिखे जाने के काल में दिशा, दूरी तथा समय के मापन के उपकरण तो थे। किन्तु किस विधि से प्रकाश की गति का कलन किया गया है, वह ज्ञात नहीं हो पाई है। किन्तु, यह आकलन करने के लिए खगोलीय उपकरण तथा समय के मापन के उपकरण सायण के सैंकड़ों वर्ष पूर्व भी भारत में उपलब्ध थे।
पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने दूरबीन के अविष्कार के उपरान्त इसका खगोलीय वेधन के लिए प्रयोग आरम्भ किया। इन दूरदर्शी यंत्रों के शक्तिशाली होने के साथ ही बृहस्पति और शनि के कुछ उपग्रहों की खोज की गई। फिर उन्हीं उपकरणों के माध्यम से इन उपग्रहों की कक्षा तथा परिक्रमा के काल का भी आकलन किया गया।
डेनमार्क के खगोलशास्त्री ओले रूमर भी ऐसे ही एक ज्योतिर्विद थे। वे पेरिस की वेधशाला में बृहस्पति के चन्द्रमा आयो के ग्रहण का अध्ययन कर रहे थे। तब उनके अवलोकन में उन्हे एक बात आई कि जब आयो बृहस्पति के पीछे से आता है तब यदि बृहस्पति पृथ्वी से दूर है, तो उसका ग्रहण का समय बृहस्पति के पृथ्वी से निकट होने के समय से अधिक होता है। आयो बृहस्पति की परिक्रमा लगभग ४२ घंटे २७ मिनट में करता है। अतः आयो के ग्रहण का अध्ययन लगभग प्रत्येक दूसरे दिन किया जा सकता है।
इससे रूमर ने निष्कर्ष निकाला कि प्रकार की गति सीमित है। तथा तब ज्ञात तथ्यों के आधार पर यह आकलन किया, कि प्रकाश को पृथ्वी की कक्षा के व्यास की दूरी पार करने में लगभग २२ मिनट का अतिरिक्त समय लगता है।
इस तथ्य के आधार पर डच वैज्ञानिक क्रिस्तिआन हुय्गेंस ने प्रकाश की गति का मान लगभग २१०,००० किलोमीटर प्रति सेकंड की गणना की। हुय्गेंस की यह गणना रूमर के त्रुटिपूर्ण आकलन पर आधारित थी। रूमर का पृथ्वी की कक्षा के व्यास की दूरी तय करने में लगे समय २२ मिनट का आकलन वास्तविकता में लगे १६.७ मिनट से कहीं अधिक था। इसका उचित मान रखने पर प्रकाश की गति का आकलन लगभग २७७,००० किलोमीटर प्रति सेकंड किया जाता।
हुय्गेंस तथा रूमर की प्रकाश की गति की गणना और सायण के लिए गति के आँकड़े में बहुत भिन्नता नहीं। दोनों ही यह मानते हैं कि प्रकाश तत्क्षण सभी स्थानों पर नहीं पहुँचता है, अपितु एक सीमित गति से चलता है। उस गति का आकलन त्रुटिपूर्ण है। किन्तु जहाँ यूरोपीय वैज्ञानिकों का आकलन प्रायोगिक अवलोकन के तथ्यों पर आधारित है, वहीं सायण के गतिमान का आकलन कैसे किया गया यह ज्ञात नहीं।